जरूरत है कुप्रथाओं और कुरीतियों से उबरने की
परम्पराएँ वे सामाजिक विरासत हैं जो हमारे समाज में बिना किसी व्यवधान के सदियों से निरंतर चली आ रही हैं। ये परम्पराएँ पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती हैं,अतः इन्हें सामाजिक उपहार कहा जा सकता है। इनका विकास समाज में एवं समाज द्वारा ही होता है। ये परम्पराएँ परिवर्तनशीलता की दृष्टि से कठोर होती हैं तथा इनका पालन अचेतन रुप से बिना किसी भी प्रकार के विश्लेषणात्मक परीक्षण के ही किया जाता है। हालाँकि परम्पराएँ सामाजिक सुरक्षा प्रदान कर व्यक्ति के सामाजीकरण में भी योगदान देतीं हैं। कई परम्पराएँ सामाजिक तनाव को कम करके तथा सामाजिक विकास का मार्ग प्रशस्त कर उसकी विकासात्मक दिशा का निर्धारण करती हैं।लेकिन कई बार यह देखा जाता है कि .जमानों से चली आ रही मृत पीढ़ियों कि परम्पराएँ सामाज के व्यक्तियों के बुद्धि और विवेक पर हावी हो जाती हैं।
आज के पहले कितनी ही परम्पराएँ हमारे सामाज में प्रचलित रही हैं जिनका पालन कुछ समय तक किया गया तथा सामाज के अनुकूल नहीं होने पर लम्बे वैचारिक संघर्ष के पश्चात उनका अन्त कर दिया गया। इस प्रकार उन्हें परम्परा की स्रेणी से बाहर कर महज अब वे प्रथाएं या सामाजिक कुरीतियों के रुप मे जानी जाती हैं जिनमें से कुछ प्रथाएं इस प्रकार हैं – सती प्रथा,बाल विवाह,विधवा अविवाह,छुआछूत,जाति प्रथा आदि।उपरोक्त प्रथाओ के अतिरिक्त आज भी कुछ ऐसी परम्पराएँ सामाज में व्याप्त हैं जिनको निर्मूल किए जाने की आवश्यकता है; जैसे- दहेज प्रथा,पर्दा प्रथा,बाल विवाह,जाति प्रथा,बहु विवाह आदि।इनमें से कुछ को तो समाप्त कर दिया गया है लेकिन इनमें से ज्यादातर समाज को अब भी जकड़े हुए हैं। जिस तरह से समाज इन कुरीतियों के कारण घुट रहा है यह देखकर ऐसा बिल्कुल भी प्रतीत नहीं होता है कि भविष्य में समाज अपने आदर्शात्मक स्वरुप के लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो सकेगा।
कुरीतियों का समर्थन करने हेतु किसी प्रकार का तर्क हो ही नही सकता है, कारण यह है कि ये सभी सर्वज्ञात एवं सर्वमान्य प्रथाएं हैं जिन्हें व्यक्ति तथा सामाज द्वारा समग्र रूप से दूषित एवं अभिशप्त माना जाता है। लेकिन कहने से क्या होता है? यदि कहने मात्र से व्यावहारिक परिवर्तन आ जाता तो समाज,मानवता एवं परम्पराओं पर आज प्रश्न खड़ा करने की नौबत ही नहीं आती और सब कुछ जो अवांछित है, परिवर्तित हो चुका होता।लोग समाज और मानव सभ्यता को शर्मसार करने वाली प्रथाओं और परम्पराओं के समर्थन में बस यह तर्क देकर स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करते हैं कि – “सभी लोग ऐसा करते हैं।” तथा “लोग उनसे अपेक्षा करते हैं कि उनके द्वारा भी प्रथाओं का पालन किया जाए।” उपरोक्त दो तर्क दिए जाने पर भी यदि प्रश्न करने वाला व्यक्ति शान्त होता हुआ नहीं प्रतीत होता है तो ऐसे में आमतौर पर लोगों की सामान्य प्रवृत्ति रही है कि वे लम्बे अर्से से चली आ रही परम्परा रुपी श्रृंखला की एक कड़ी जिसे प्रथा कहा जाता है उसे धर्म,सभ्यता और संस्कृति से जोड़ने में जरा भी नहीं कतराते हैं और कारण, किसी प्रकार सभा या संवाद में उनकी विजय हो तथा सामने वाला प्रश्नकर्ता चुप हो।जहाँ बात यह आती है कि ऐसा करने के लिए व्यक्ति आबद्ध है क्योंकि यह समाज की परम्परा रही है, इस पर हमे हमारे अतीत को देखने की आवश्यकता है। इस तरह के हमें हजारों उदाहरण मिलेंगे जिन्होंने एक समय मानव को ही निकलना प्रारम्भ कर दिया। तब क्या हुआ? क्या वह परम्परा नहीं थी जो अपने चरम पर पहुँचने से पहले सदियों से चली आ रही थी?उन परम्पराओं को भी विकास के तमाम चरणों से होकर गुजरना पड़ा था तब जाकर वे अपने शीर्ष पर पहुँची थी और हमने ही उन्हें खत्म किया था। वो भी तब जब वे सम्पूर्ण समाज को दूषित कर चुकी थी। यहाँ तक कि वे मानव और मानवता को भी अपना निवाला बना रही थी। तब उनमें से कितनों को ही जो समाज और मानवता के प्रतिकूल रही उन्हें लाँघते हुए तथा पीछे छोड़ते हुए हम आगे बढ़े। किसी दूषित रीति रिवाज को उखाड़ फेंकने के स्थान पर उनको समर्थन तथा प्रोत्साहन दिया जाना हमारी ही वैचारिक एवं चारित्रिक हीनता है जो किसी व्यक्ति के समक्ष चट्टानी दीवार की भाँति है;जिसके दूसरी ओर कुछ भी दिखाई नहीं देता तथा व्यक्ति एक ही ओर सीमित रह जाता है। ऐसी स्थिति में सोंचने समझने की,नीति अनीति में विभेद करने तथा अच्छे-बुरे की विश्लेषणात्मक क्षमता शून्य हो जाती है। परिणामस्वरूप सब कुछ सही लगता है तब तक,जब तक स्वार्थ सधता रहता है।
परम्परा के दूषित तत्वों को नष्ट करने हेतु व्यक्ति तथा समाज को उसकी अपनी स्वयं की मनोभूमि में उतरना ही होगा तभी अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी। सभी प्रकार की प्रचलित परम्पराओं को विवेक, ज्ञान तथा विज्ञान की कसौटी पर कसा जाना चाहिए; साथ ही उस तरह की अभ्यस्तताओं से बाहर आने की आवश्यकता है जो कि उक्त कसौटियों पर खरी नहीं उतरती हैं। मनुष्य को सद्भाव,सामंजस्यपूर्ण,सार्थक तथा प्रयोजनपूर्ण परम्पराओं को ही अपनाना चाहिए। घृणित,पशुवत,क्रूर एवं अमानवीय परम्पराओं को त्यागा जाना व्यक्ति,समाज, राष्ट्र तथा विश्व के लिए समग्र रूप से श्रेयस्कर होगा अन्यथा मानव सभ्यता एवं समाज विकास से विमुख हो जायेंगे। उनकी स्वयं की पतित प्रवृत्तियाँ ही उनको तथा उनके भविष्य को खतरे मे डाल देंगी।
यह विचार पी.जी. कॉलेज पट्टी,के बी.ए तृतीय वर्ष में पढने वाली छात्रा आकांक्षा शर्मा का हैं.